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आज निशा का बाहरवीं क्लास का रिज़ल्ट आया है। जिसमें उसने जिले में तीसरा स्थान प्राप्त किया है। लेकिन निशा के लिए रिज़ल्ट का मतलब सिर्फ इतना है। कि इसके आधार पर, वो कागज़ी तौर पर कॉलेज जाने के लिए तैयार हो गई है।
निशा उत्तर प्रदेश के कानपुर, जिसे कभी भारत का मैनचेस्टर कहा जाता था।, के छोटे से कस्बे शिवली में एक बड़ी शान-ओ-शौकत वाले ठाकुर परिवार में दो बड़े भाइयों(जो किशोरावस्था के करीब पहुँच चुके थे।), के बाद पैदा हुई लड़की थी। वैसे निशा का जन्म हो, इस खास मकसद से उसके पिता ने उसकी माँ को अपने आलिंगन में नहीं लिया था। पर जब उसकी माँ का गर्भ ठहर गया तो उसके पिता आखिरकार कर भी क्या सकते थे। लेकिन उन्होंने पूजा पाठ बहुत की थी। कि तीसरा भी लड़का हो जाए। लेकिन जब ना चाहते हुए निशा पैदा हो गई। तो उसके पिता(सोमवीर सिंह ठाकुर) ने भगवान का आशीर्वाद समझकर खुद को काफ़ी वक़्त तक सांत्वना दी थी। जो हुआ सो हुआ, ऊपर वाले की माया को कौन समझ सकता है। जो होता हैं। अच्छे के लिए ही होता है।
निशा के पिता शिवली कस्बे के एक इज्जतदार और पैसे वाले व्यक्ति थे। पर वो शिवली के स्थानीय निवासी नहीं थे। बल्कि करीब पचास साल पहले निशा के दादा यहाँ पर आकर बस गए थे। बस तभी से वो यहां पर रह रहे थे। इनके एक बड़ा और एक छोटा भाई और था। छोटा भाई कानपुर में स्टेशन इंचार्ज जिसके एक लड़का(निशा से पाँच साल बड़ा)और बड़ा भाई कानपुर कोर्ट में वकील, जिसकी एक लड़की(जिसकी उम्र बीस साल) थी। और सोमवीर सिंह खुद शिवली नगर पंचायत के अध्यक्ष थी।
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निशा जब तेरह साल की हुई थी। तब उसकी सहेली माही ने उसे, जेन ऑस्टिन के नॉवेल पढ़ने के लिए दिए थे। नॉवेल पढ़कर वो, एक नई दुनिया में जीने लगी थी। वो पूरे दिन किसी न किसी उपन्यास की नायिका के किरदार में रहती थी। वो सोचती थी। जब मुझे प्यार होगा तो किस तरह का होगा। प्राइड एंड प्रेजुडिस की एलिज़ाबेथ जैसा कि प्यार होते हुए भी, मैं उससे इनकार करती रहूंगी या सेंस एंड सेंसिबिलिटी की मरियाने दशवुड जैसा जो मुझे पागल कर देगा। या फिर एम्मा जैसा कि प्यार हो भी गया और पता भी नहीं चल रहा हैं। या मेन्सफिल्ड पार्क की फैनी जैसा जिसका इजहार करने के लिए मुझे एक लंबा इंतजार करना पड़ेगा। ऑस्टिन के नॉवेल पढ़-पढ़कर उसका मन 13 की उम्र में ही खुद को किसी की बाँहों में अंगड़ाई लेते हुए महसूस करने लगा था।
निशा उपन्यास पढ़ते वक्त बहुत से रोमानी ख्याल बुन लेती थी। पर उपन्यास खत्म होने के बाद, वो हमेशा एक चीज़ जरूर सोचती थी। क्या वाकई प्यार इतना ताकतवर होता हैं? कि किसी के लिए हमसे कुछ भी करा देता है। हमारे अंदर विद्रोह की एक भावना जगा देता हैं। आखिर जिन पिता और भाई के घर में आने से भी, मैं सहम जाती हूँ, क्या जब मुझे प्यार होगा? मैं तब भी ऐसे ही डरूँगी इनसे और अपने प्यार को पाने के लिए कभी संघर्ष नहीं कर पाऊँगी या केवल पिता की इज्ज़त की पगड़ी के बल से माथे पर पड़ी सलवटों के कम होने के इंतजार में खुद को खत्म कर दूंगी या फिर पिता के बाद भी भाइयों द्वारा उस इज्ज़त की पगड़ी को उनके सिर पर सजता देखने के लिए, मैं अपने प्यार का बलिदान दे दूंगी पर अगर इतना मुश्किल है। किसी से प्यार करना और हमेशा के लिए उसका बनना, फिर तो मैं ऑस्टिन के किसी उपन्यास का कोई किरदार हो जाऊँ मेरे लिए वो ही अच्छा होगा। क्योंकि कम से कम फिर मैं अपने प्यार के करीब तो रह सकूँगी।